महावतार बाबाजी

येसुमसीह सदृश संत एवं अमर, अक्षय योगी महावतार बाबाजी के सशरीर उपस्थिति का परिचय सन् 1946 में प्रकाशित अपनी चिर्प्रतिष्ठित पुस्तक योगी कथामृत के माध्यम से परमहंस योगानन्द ने किया |आधुनिक भारत के महानतम योगियों में से एक, योगानंद ने बताया कि किस प्रकार हिमालय में वास करते हुए बाबाजी ने सदियों से आध्यात्मिक विभूतियों का मार्गदर्शन किया है | बाबाजी एक महान सिद्ध हैं जो साधारण मनुष्य कि सीमाओं को तोड़ कर समस्त मानव मात्र के आध्यात्मिक विकास के लिये चुपचाप काम कर रहे हैं | बाबाजी आत्मप्रचार से दूर नेपथ्य में रह कर योग साधकों को इस तरह सहायता करते हैं कि कई बार साधकों को उनके बारे में मालूम तक नहीं रहता | परमहंस योगानन्द ने ये भी बतलाया है कि सन् 1861 में लाहिड़ी महाशय को क्रिया योग के नाम से प्रसिद्ध अति प्रभावशाली तकनीकों की शिक्षा देने वाले बाबाजी ही हैं | बाद में लाहिड़ी महाशय ने अनेक साधकों को क्रिया योग की दीक्षा दी | लगभग 30 वर्ष बाद उन्होंने योगानंद के येसुमसीह सदृश गुरु श्री युक्तेश्वर गिरी को दीक्षा दी | योगानंद ने 10 वर्ष अपने गुरु के सान्निध्य में बिताए जिसके बाद स्वयं बाबाजी ने उनके सामने प्रकट होकर उन्हें क्रिया योग के इस दिव्य ज्ञान को पाश्चात्य देशों में ले जाने का निर्देश दिया | 1920 से लेकर अपने जीवन के अंत तक योगानंद इस मिशन को सफल बनाने में जुटे रहे | सन् 1952 में शरीर त्याग कर महासमाधी में लीन होने के बाद भी योगानंद ने क्रिया योग के प्रभाव एवं इस परम्परा को अपनी श्रद्धांजलि दी | उनके शरीर त्याग के 21 दिन बाद भी उनके शरीर में कोई विकृति नहीं आई | 21 दिनों के बाद उनके शरीर को काँसे के ताबूत में रख कर लोस अन्जेलेस में संरक्षित किया गया | मार्च 2002 में उनके महासमाधी के पचासवीं वार्षिकी पर उनके पार्थिव अवशेष को स्थायी समाधी-स्थल में प्रतिष्ठित किया गया | इस अवसर पर पूरी दुनिया में लाखों लोगों ने योगानंद के धरोहर को कृतज्ञतापूर्वक याद किया |

दक्षिण भारत में क्रिया योग की शिक्षा के प्रचार के लिये बाबाजी सन् 1942 से ही दो आत्माओं को तैयार कर रहे थे | इनमे से एक थे मद्रास विश्व विद्यालय में भूगर्भ विज्ञान के युवा स्नातक छात्र श्री एस. ए. ए. रमैय्या और दूसरे थे प्रसिद्ध पत्रकार श्री वी. टी. नीलकान्तन जो जिद्दू कृष्णमूर्ति की संरक्षिका एवं थेओसोफिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया की संस्थापिका एन्नी बेसेंट के शिष्य थे | बाबाजी अलग अलग समय पर इन दोनों के सामने प्रकट हुए और फिर उन लोगों को अपने मिशन पर काम करने के लिये इकठ्ठा किया | सन् 1952 और 1953 में बाबाजी ने अपनी तीन पुस्तकें “द वोइस ऑफ बाबाजी एंड मिस्टीसिस्म अनलॉक्ड", “बाबाजीज़ मास्टरकी टू ऑल इल्स" और “बाबाजीज़ डेथ ऑफ डेथ" वी. टी. नीलकान्तन से लिखवाईं | बाबाजी ने इन दोनों को अपने जीवन चरित्र, अपनी परम्परा और क्रिया योग से अवगत कराया | बाबाजी के अनुरोध पर 17 अक्टूबर 1952 को इन दोनों ने “क्रिया बाबाजी संघ” नामक एक नई संस्था की स्थापना की | यह संस्था बाबाजी के क्रिया योग के शिक्षण एवं प्रसार को समर्पित है | नीलकान्तन द्वारा लिखी गई पुस्तकों के प्रकाशन एवं वितरण से पूरे भारत में एक नई जागरूकता फैल गई | एस.आर.एफ (सेल्फ रिअलाईजेशन फेलोशिप) ने इन पुस्तकों को एवं “क्रिया बाबाजी संघ” को दबाने का प्रयास किया | नीलकान्तन के मित्र तथा भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडित नेहरु बीच-बचाव कर एस.आर.एफ के इस प्रयास को विफल किया | बाबाजीज़ क्रिया योगा ऑफ आचार्याज़ ने सन् 2003 में “द वोइस ऑफ बाबाजी” के नाम से इन तीनों पुस्तकों का संकलित रूप पुनः प्रकाशित किया |

“मास्टरकी टू ऑल इल्स” में बाबाजी ने “मैं कौन हूँ ?” का स्पष्ट उत्तर दिया है | संक्षेप में उन्होंने बताया कि जब हम स्वयं अपनी वास्तविकता को जान लेंगे तब हम यह भी जान लेंगे कि बाबाजी कौन हैं | तात्पर्य यह है कि बाबाजी की पहचान न तो उनकी सीमित मानवीय व्यक्तित्व या उनके जीवन के घटनाक्रम से और न ही उनकी देव रूप में परिणित शरीर से भी की जा सकती है | हम सभी के लिये आत्म-साक्षात्कार प्राप्ति के लिये मार्गदर्शन देने की खातिर उन्होंने पहली बार अपने जीवन के कुछ अनमोल वृत्तान्त का विवरण दिया है | बाबाजी की जीवन की इन घटनाओं को बाद में “बाबाजी व 18 महर्षियों की क्रिया योग परम्परा” में प्रकाशित किया गया है |

अपने अंदर निहित दिव्य चेतना एवं महान शक्ति कुण्डलिनी के प्रतीक सर्पिनी पर स्वामित्व पा लेने के कारण बाबाजी को “नागराज” नाम दिया गया | उनका जन्म कावेरी नदी और हिंद सागर के संगम पर स्थित तमिल नाडू के एक तटीय ग्राम परंगिपेट्टई में 30 नवम्बर सन् 203 में हुआ | भगवान कृष्ण के तरह उनका जन्म रोहिणी नक्षत्र में हुआ | उनका जन्म कार्तिक मास की अमावस्या को हुआ जब कार्तिकेय दीपम अर्थात दीपावली का त्योहार मनाया जा रहा था | उनके माता-पिता मूलतः दक्षिण भारत के पश्चिमी तट मालाबार निवासी नम्बूदरी ब्राह्मण थे | उनके पिता गाँव के शिव मंदिर के पुजारी थे जहाँ आज शिव के पुत्र मुरुगन आसीन हैं |

5 वर्ष की उम्र में बाबाजी को एक व्यापारी ने अगवा कर लिया और दास बना कर कलकत्ता ले गया | वहाँ एक अमीर सेठ ने व्यापारी को उनका दाम देकर उन्हें मुक्ति दिलवाई | वह यायावर साधुओं की एक छोटी जमात में शामिल हो गए | उनके साथ रह कर उन्होंने भारत की धार्मिक और आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया लेकिन वह इतने से संतुष्ट नहीं हो पाए | जब उन्होंने सुना कि महान सिद्ध अगस्त्य सशरीर उपस्थित हैं तब वह तीर्थ यात्रा पर निकल परे | भारत के दक्षिण में स्थित श्री लंका द्वीप के दक्षिणी छोड़ पर कटीरगाम के पवित्र मंदिर पहुंचे | वहाँ उन्हें अगस्त्य के एक शिष्य बोगनाथ मिले | चार वर्ष तक उन्होंने बोगनाथ से ध्यान का गहन अभ्यास और सिद्ध योगियों के दर्शन, सिद्धांतम की शिक्षा ली | वहीं उन्होंने “सर्विकल्प समाधी” की अवस्था में कटीरगाम मंदिर के अधिष्ठाता भगवान मुरूगन का दर्शन पाया |

जब वे 15 वर्ष के हुए तब बोगनाथ ने बाबाजी को अपने गुरु पौराणिक अगस्त्य मुनि के पास भेजा जो तमिल नाडू में कोत्रल्लम के निकट वास कर रहे थे | वहाँ उन्होंने 48 दिनों तक घोर तपस्या की | तब अगस्त्य मुनि ने उनके सामने प्रकट होकर प्रभावशाली स्वशन तकनीक, क्रिया कुण्डलिनी प्राणायाम की दीक्षा दी | उन्होंने बालक नागराज को जो कुछ उन्हें सिखाया गया था उनका गहन अभ्यास कर सिद्ध बनने के लिये हिमालय की ऊँचाई पर बसा बद्रीनाथ जाने की आज्ञा दी | वहाँ जाकर नागराज ने अगले 18 महीनों तक एक गुफा में रह कर बोगनाथ और अगस्त्य के सिखाए गए तकनीक का अभ्यास किया | ऐसा करते हुए उन्होंने अपने अहं का परित्याग किया और अपने रोम रोम में ब्रह्म को अवतरित कर लिया | अपनी चेतना और अपनी शक्ति ब्रह्म को समर्पित कर वह सिद्ध बन गए | उनका शरीर आधि-व्याधि के प्रकोप से और यहाँ तक कि मृत्यु से भी मुक्त हो गया | तब एक महर्षि के रूप में परिणत इस महान सिद्ध ने अपने आप को संतप्त मानवता के कल्याण के लिये समर्पित कर दिया |

बाबाजी का जीवन

उसके बाद सैकड़ों बरसों से बाबाजी ने इतिहास के महानतम संतों एवं अनेकानेक आध्यात्मिक गुरुओं को प्रेरणा दी है और कार्य- सिद्धि के लिये उनका मार्गदर्शन किया है| ईश्वी संवत के नौवीं शताब्दी में हिन्दू धर्मं के महान पुनर्स्थापक आदि शंकराचार्य और 15 वीं शताब्दी में हिन्दू और मुसलमान दोनो ही के चहेते संत कबीर भी इनमे शामिल थे | कहा जाता है कि बाबाजी ने स्वयं प्रकट होकर दीक्षा दी थी और इन दोनों ने अपने लेखन में बाबाजी का उल्लेख किया है | उन्होंने 16 वर्ष की अवस्था के एक मोहक किशोर का शरीर धारण कर रखा है | 19 वीं शताब्दी में थिओसोफिकल सोसाइटी की संस्थापिका मैडम बलावत्सकी ने उन्हें बुद्ध के अवतार मैत्रेय और आने वाले काल के विश्व गुरु के रूप में पहचाना | इन्ही विश्व गुरु का उल्लेख सी. डब्ल्यू. लेडबेटर ने अपनी पुस्तक “मास्टर्स एंड द पाथ” में किया है |


वैसे तो बाबाजी अप्रकट और गुप्त रहना पसंद करते हैं लेकिन कभी-कभी अपने भक्तों और शिष्यों को दर्शन देते हैं |उनको शिक्षा देने और उनकी उन्नति करवाने के लिये बाबाजी समय समय पर उनके मन में तरह तरह के आध्यात्मिक सम्बन्ध बनाते जाते हैं | हममे से हरेक के साथ उनका सम्बन्ध अनूठा है और हमारी व्यक्तिगत आवश्यकताओं और हमारे स्वाभाव के अनुरूप है | वह हमारे अंतरंग गुरु हैं | और जैसे जैसे हमारी चेतना का विस्तार होता है बाबाजी के सान्निध्य में हम विश्व व्यापी प्रेम एवं करुणा का दर्शन पाकर हर जगह और हर चीज में बाबाजी को देखते हैं |

 

बाबाजी ने महर्षि पतंजलि द्वारा तीसरी शताब्दी में प्रसिद्ध ग्रन्थ “योग सूत्र” में वर्णित क्रिया योग का पुनरुद्धार किया | सूत्र II.1 में क्रिया योग की परिभाषा इस प्रकार दी गयी है : “सतत अभ्यास(वैराग्य के साथ), स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान” | पतंजलि के बताये हुए क्रिया योग के साथ बाबाजी ने तंत्र साधना की शिक्षा को भी जोड़ा | इनमे प्रमुख हैं प्राणायाम, मंत्र एवं भक्ति के द्वारा दिव्य चेतना एवं महान शक्ति “कुण्डलिनी” को विकसित करना | क्रिया योग के उनके आधुनिक संश्लेषण में अनेक बहुमूल्य तकनीक जोड़े गए हैं | बाबाजी ने सन् 1861 में लाहिड़ी महाशय को प्रभावशाली क्रिया योग विद्या की दीक्षा दी |


बाबाजी के बताये हुए क्रिया योग के अन्य तकनीक

सन् 1954 में बद्रीनाथ स्थित अपने आश्रम में 6 महीने की अवधि में बाबाजी ने अपने एक महान भक्त एस. ए. ए. रमैय्या को समूर्ण 144 क्रिया की दीक्षा दी जिसमे आसन, प्राणायाम, ध्यान, मंत्र एवं भक्ति के व्यवहारिक तकनीक सम्मिलित हैं | पूरी तरह योगी के रूप में निष्णात होकर उन्होंने “बाबाजीज़ क्रिया योगा” नाम से अपने मिशन की स्थापना कर सारी दुनिया में हजारों जिज्ञासुओं को इस विद्या से जोड़ा |


आत्म-प्रचार के बिना परोक्ष रूप से ही काम करना बाबाजी अपने उद्देश्य प्राप्ति के लिये उपयुक्त पाते हैं | किन्तु जो अत्यन्त भाग्यशाली होते हैं उनको बाबाजी प्रत्यक्ष दर्शन भी देते हैं | सन् 1970 में हिमालय के कुमाऊँ पहाड़ीयों के ऊपर स्वामी सत्यस्वरानंद को दर्शन दे कर बाबाजी ने उन्हें लाहिड़ी महाशय के लेखन का अनुवाद और प्रकाशन करने का भार सौंपा | यह कार्य सत्यस्वरानंद ने सेन डिएगो, कैलिफोर्निया से प्रकाशित धारावाहिक “संस्कृत क्लासिक्स” में किया | सन् 1999 में प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक मार्शल गोविन्दन को बाबाजी के जीवंत आभारूप का दर्शन हुआ | बद्रीनाथ से लगभग 30 किलोमीटर दूर, समुद्रतल से 5000 मीटर की ऊँचाई पर अलकनंदा नदी के उद्गम पर बाबाजी अपने तम्बई केशराशि और सफ़ेद धोती में एक दैदीप्तामान युवक के रूप में आये और मार्शल गोविन्दन को उनके चरण स्पर्श करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ |


बाबाजी की सच्ची पहचान पाने के लिये या उनकी गरिमा की एक झलक पाने के लिये उस सिद्ध परम्परा को जानना आवश्यक है जिसमे बाबाजी अवतरित हुए हैं | सिद्ध ऋषियों ने स्वर्ग जैसे किसी परलोक में पालायन करने की जगह ब्रह्म का साक्षात्कार अपने आप में किया और अपने अस्तित्व के प्रत्येक कोष को ब्रह्म की अभिव्यक्ति का एक माध्यम बना डाला | अपने मानव स्वरुप का सर्वांगीन कायाकल्प करना ही उनका लक्ष्य है |


ईश्वी संवत के दूसरे से चौथे शताब्दी के दौरान सिद्ध तिरुमूलर के ग्रन्थ “तिरुमंदिरम” में संकलित 3000 दोहों में सिद्ध ऋषियों की सिद्धियों का सटीक एवं सुस्पष्ट विवरण है | हमारी शोध से यह जाना गया है कि योग के सुप्रसिद्ध प्रणेता, पतंजलि और बाबाजी के गुरु बोगनाथ उनके गुरुभाई थे | वैसे तो सिद्ध परम्परा के साहित्य का उनकी मूल भाषा संस्कृत या तमिल से अंग्रेजी में अनुवाद कम ही हुआ है फिर भी कुछ व्याख्या अंग्रेजी में उपलब्ध है | इनमे प्रमुख हैं डा.कामिल ज्वेलिबिल की “पोएट्स ऑफ द पॉवर्स” और प्रो.डेविड गोर्डन वाइट की “द अल्केमिकल बॉडी” | इन दोनों ही प्रबुद्ध ग्रंथों में सिद्ध ऋषिओं की अद्भुत क्षमताओं को उजागर किया गया है जिनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि बाबाजी किसी और लोक से आये हुए कोई मायावी नहीं थे | मनुष्य के क्रमिक विकास की अगली कड़ी में ऋषि अरबिंदो ने जिस परामानसिक अवस्था की कामना और भविष्यवाणी समस्त मानवता के लिये की थी मानव चेतना का वही स्वरुप बाबाजी में प्रतिष्ठित हुआ | और अपने इस रूप में वो हमारे मसीहा या कोई धर्म प्रवर्तक नहीं हैं | उन्हें यश-कीर्ति या श्रद्धा-भक्ति की कोई चाह नहीं है | अन्य सिद्ध महर्षियों की तरह ही उन्होंने अपने आप को पूरी तरह अव्यक्त ब्रह्म को समर्पित कर दिया है और अब वह विश्व व्याप्त अंधकार को अपनी चैतन्य ज्योति, अबाध आनंद और पूर्ण शांति प्रदान कर रहे हैं | 

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