जगदगुरु शिव
श्रीशिव के प्रति असंख्य प्राणियों की अगाध श्रद्धा इस बात का स्वतः ही परिचायक है कि वह समस्त कल्याण कारी व जगत पूजनीय हैं। श्रीशिव का एक बृहत परम् कल्याणकारी कार्य इस विश्व में शिव जगदगुरु के रूप में नाना प्रकार की विद्या योग, ज्ञान, भक्ति आदि का प्रचार करना है । जो उनकी कृपा के बिना यथार्थ रूप में प्राप्त नहीं हो सकता। श्रीशिव केवल जगदगुरु ही नहीं हैं अपितु अपने कार्य-कलाप आहार-विहार और संयम-नियम आदि द्वारा जीवन्मुक्त के लिए आदर्श हैं।
शिव ही जगदगुरु हैं
श्रीशिव के प्रति असंख्य प्राणियों की अगाध श्रद्धा इस बात का स्वतः ही परिचायक है कि वह समस्त कल्याण कारी व जगत पूजनीय हैं। श्रीशिव का एक बृहत परम् कल्याणकारी कार्य इस विश्व में शिव जगदगुरु के रूप में नाना प्रकार की विद्या योग, ज्ञान, भक्ति आदि का प्रचार करना है । जो उनकी कृपा के बिना यथार्थ रूप में प्राप्त नहीं हो सकता। श्रीशिव केवल जगदगुरु ही नहीं हैं अपितु अपने कार्य-कलाप आहार-विहार और संयम-नियम आदि द्वारा जीवन्मुक्त के लिए आदर्श हैं। लिंगपुराण के अध्याय 7 में और शिवपुराण की वायवीय संहिता के पूर्वभाग में शिव के योगाचार्य होने का और उनके शिष्य-प्रशिष्य का विशद वर्णन है-
युगावर्तेषु शिष्येषु योगाचार्यस्वरूपिणा। तत्र तत्रावतीर्णेन शिवेनैव प्रवर्तते।।
प्रत्येक युग के आरंभ में श्रीशिव योगाचार्य के रूप में अवतीर्ण होकर शिष्यों को शिक्षा प्रदान करते हैं। चार बड़े ऋषियो ने इस योगशास्त्र का संक्षेप में वर्णन किया है। उनके नाम रूरू, दधीच, अगस्त्य और महायश उपमन्यु हैं। ये पशुपति के उपासक और पाशुपत-संहिताओं के प्रवत्र्तक हुए। इनके वंश में सैकड़ों-हजारों गुरु उत्पन्न हुए। शिवपुराण में तो इन योगाचार्य का बहुत विस्तार से वर्णन है। इनमें सनत्कुमार, सनक, सनन्दन, सनातन, कुथुमि, मित्रक आदि के नाम आते हैं। लिखा है कि संसार की मंगल-कामना ही इनका व्रत है। अधिकतर प्राचीन ऋषि सभी शिवभक्त ही हैं।
स्वेदेशिकानिमान् मत्वा नित्यं यः शिवमर्चयेत्। स याति शिवसायुज्यं नात्र कार्य विचारणा।।
जो इनको अपना सदगुरु मानकर शिव की उपासना ध्यानादि करता है व अनायास शिव की साक्षात् प्राप्ति करता है, इसमें कोई संदेह नहीं। प्राप्त वाक्यों से सिद्ध है कि ये सदगुरु इस समय भी वर्तमान में रहकर योग्य साधकों की अदृश्य अथवा दृश्य-भाव से सहायता कर इष्टोन्मुख और शिवोन्मुख करते हैं। साधक इनमें से किसी एक का वरण करके साधना करने से अवश्य इष्ट का लाभ करता है। इनमें से किसी एक को वरण किए बिना इष्ट की उपासना में सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता। भाव यह है कि जगदगुरु श्रीशिव की इच्छानुसार उनके पुत्र की भाति ये योगाचार्य और उनके शिष्य-प्रशिष्यगण ज्ञान-योग-भक्ति के प्रचार में सदा ही प्रवत्त रहते हैं और योग्य साधकों की अदृश्य भाव से सहायता करते हैं।
सदाशिव ज्ञान के सागर हैं। सभी देवी-देवता एवं ऋषि आदि भी उनसे ही ज्ञान लेते हैं, वही ज्ञान-प्रदाता एवं सर्व के अधिनायक हैं। ब्रह्मा केवल निगम के प्रकाशक हैं रचियता नहीं क्योंकि वेद अपौरुषेय हैं परंतु भगवान शिव आगम के भी प्रणेता हैं। इस कारण उन्हें ‘मुक्तिदाता’ कहने में सुगमता होती है। योगशास्त्रों के तो भगवान शिव आदिगुरू हैं क्योंकि शिव-शक्ति को योग ही यथार्थ योग है। मंत्रयोग में बहिःप्रकृति तथा अन्तःप्रकृति नाम और रूप के योग से समाधि रूप शिवत्व की प्राप्ति होती है। हठयोग में प्राणरूपी शिव और सूक्ष्म शरीर वच्छिन्न प्रकृति के योग से समाधिरूपी शिवस्वरूप की प्राप्ति होती है।
लययोग में मूलाधार के कुण्डली शक्ति के जाग्रत होकर सहस्त्रकमल में स्थित सदाशिव के साथ आलिंगित होने पर लययोग-समाधि का उदय होकर शिवत्व की प्राप्ति होती है। ज्ञानमय राजयोग तो स्वयं ही शिव स्वरूप है। उसका फल साक्षात् शिवत्व की प्राप्ति है। इस कारण यह मानना पड़ेगा कि परम योगिराज शिव ही योग के प्रकाशक एवं प्रधान योगाचार्य हैं। त्रिगुणमयी प्रकृति ही सदाशिव को सदा आलिंगित किये रहती है। विश्वजननी महामाया पार्वती रूप् से उनकी सदा सेवा करती है। महामाया महादेवी भक्त को विद्यारूपिणी होकर अपनी गोद में लेती हुई ब्रह्मा में लय हो जाती है, ऐसी महामाया से युक्त ‘सदाशिव’ ही मुक्तिदाता हो सकते हैं और वही यथार्थ में जगदगुरु कहे जा सकते हैं। श्रीमद्भागवत में भी विष-पान करते समय सब देवताओं ने भगवान शिव को जगद्गुरू कहकर स्तुति की है।