वेदों मे शिवोपासना

‘जब प्रलयरूप समाधि मे न दिन था न रात्रि थी, न कार्य-कारण ही था, तब सब प्रकार के आवरण से रहित तुरीयस्वरूप एक शिव ही था।’ जब सब प्रपच अव्यक्त में लय हो जाता है और प्राणशक्ति निर्विशेष रूप से उमा में ओत-प्रोत होती है- कार्य कारण से रहित शव की तरह अनंत शक्तिमय शमशान में शयन करती है, तब अनन्ताकाशात्मक शमशान व्यापी एक शिव ही अवशिष्ट रहता है, उसके समान न कोई दूसरा हुआ है, न होगा।

वेदों मे शिवोपासना

वेदों मे शिवोपासना

‘जब प्रलयरूप समाधि मे न दिन था न रात्रि थी, न कार्य-कारण ही था, तब सब प्रकार के आवरण से रहित तुरीयस्वरूप एक शिव ही था।’ जब सब प्रपच अव्यक्त में लय हो जाता है और प्राणशक्ति निर्विशेष रूप से उमा में ओत-प्रोत होती है- कार्य कारण से रहित शव की तरह अनंत शक्तिमय शमशान में शयन करती है, तब अनन्ताकाशात्मक शमशान व्यापी एक शिव ही अवशिष्ट रहता है, उसके समान न कोई दूसरा हुआ है, न होगा।

 

          स्वधया च शम्भू:

‘अपनी शक्ति के सहित एक शिव ही हैं।’

उमासहायं परमेश्वरं प्रभुं त्रिलोचन नीलकण्ठं प्रशांतम्।

‘उमायुक्त परमेश्वर समर्थ है- अग्नि, विद्युत और सूर्यरूप तीन नेत्रों वाला, नीलकण्ठ और तुरीय स्वरूप है। विश्वरचना के पूर्व बीज शक्ति चेतन के जितने स्वरूप में स्फुरित होती है, उसका उतना ही भाग नीलकण्ठ होता है, क्योंकि अधिष्ठित मायाजाल को मायिक ने अधिष्ठान रूप से पान किया था।

 

                        विषं जलम्

‘ जल का नाम विष है और माया अव्यक्त शक्ति का नाम सलिल है।’

नमो नीलग्रीवाय च शितिकण्ठाय च।

‘नीलकण्ठ और श्वेतकण्ठ वाले रूद्र के प्रति मेरा बारम्बार प्रणाम है।’ सृष्टि के समय चेतन के एक भाग रूप कण्ठ में बीजशक्ति माया के रूप में भासती है और प्रलय के समय यह माया बीज शक्ति के रूप में रहती है। इसी अभिप्राय से रूद्र नीलकण्ठ और श्वेतकण्ठ हैं।

              रूद्रस्तारकं ब्रह्मा व्याचष्टे।

रूद्र तारने वाले ब्रह्म हैं, ज्ञानी को शरीर त्यागते समय भगवान शिव ॐकार का मंत्र देते हैं।

जो ॐकार है व प्रणव है, जो प्रणव है व सर्वव्यापी है, जो सर्वव्यापी है वह अनंत शक्ति रूप उमा है। जो उमा है, वही तारक मंत्र ब्रह्मविद्या है, जो तारक है वही सूक्ष्म ज्ञानशक्ति है, जो सूक्ष्म है वही शुद्ध है, जो शुद्ध है वही विद्युत अभिमानी उमा है, जो उमा है वही शुद्ध है वही परब्रह्मा है, वही एक अद्वितीय रूद्र है, वही ईशान है, वही भगवान महेश्वर है और वही महादेव है।’

स्वयं भगवान शिव ब्रह्मा-विष्णु से कहते हैं- ‘ॐकार मेरे मुख से उत्पन्न होने के कारण ही मेरे ही स्वरूप का बोधक है, यह वाच्य है, मैं वाचक हॅूं। यह मंत्र मेरी आत्मा है, इसका स्मरण होने से मेरा ही स्मरण होता है। सम्पूर्ण नाम रूपात्मक जगत स्त्री-पुरूषादि, भूत समुदाय एवं चारों वेद-सभी इसी मंत्र से व्याप्त हैं और यह शिवशक्ति बोधक है।

इसी प्रसंग में भगवान शिव ने प्रणव मंत्र से नम: शिवाय मंत्र की उत्पत्ति बतायी है, यथा-

 अस्मात् पंचाक्षरं जज्ञे बोधकं सकलस्य तत्। अकारादिक्रमेणैव नकारादि यथाक्रमम्।।

अर्थात इसी प्रणव से पंचाक्षर मंत्र उत्पन्न हुआ है अर्थात अकार से नकार, उकार से मकार, मकार से शि, विन्दु से वा और नाद से यकार उत्पन्न हुआ है।