शिव तत्व रहस्य

शंकर जी को जप करते देख पार्वती को आश्चर्य हुआ कि देवों के देव , महादेव भला किसका जप कर रहे हैं। पूछने पर महादेव ने कहा , ' विष्णुसहस्त्रनाम का। ' पार्वती ने कहा , इन हजार नामों को साधारण मनुष्य भला कैसे जपेंगे ? कोई एक नाम बनाइए , जो इन सहस्त्र नामों के बराबर हो और जपा जा सके। महादेव ने कहा- राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे , सहस्त्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने। यानी राम-नाम सहस्त्र नामों के बराबर है। भगवान शिव , विष्णु , ब्रह्मा , शक्ति , राम और कृष्ण सब एक ही हैं। केवल नाम रूप का भेद है , तत्व में कोई अंतर नहीं। किसी भी नाम से उस परमात्मा की आराधना की जाए , वह उसी सच्चिदानन्द की उपासना है। इस तत्व को न जानने के कारण भक्तों में आपसी मतभेद हो जाता है।

 परमात्मा के किसी एक नाम रूप को अपना इष्ट मानकर , एकाग्रचित्त होकर उनकी भक्ति करते हुए अन्य देवों का उचित सम्मान व उनमें पूर्ण श्रद्धा रखनी चाहिए। किसी भी अन्य देव की उपेक्षा करना या उनके प्रति उदासीन रहना स्वयं अपने इष्टदेव से उदासीन रहने के समान है। शिव पुराण में कहा गया है कि ब्रह्मा , विष्णु व शिव एक-दूसरे से उत्पन्न हुए हैं , एक-दूसरे को धारण करते हैं , एक-दूसरे के अनुकूल रहते हैं। भक्त सोच में पड़ जाते हैं। कहीं किसी को ऊंचा बताया जाता है , तो कहीं किसी को। विष्णु शिव से कहते हैं , ' मेरे दर्शन का जो फल है वही आपके दर्शन का है। आप मेरे हृदय में रहते हैं और मैं आपके हृदय में रहता हूं। ' कृष्ण , शिव से कहते हैं , ' मुझे आपसे बढ़कर कोई प्यारा नहीं है , आप मुझे अपनी आत्मा से भी अधिक प्रिय हैं।

 ' संसार में निरंतर तीन प्रकार के कार्य चलते रहते हैं- उत्पत्ति , पालन और संहार। इन्हीं तीन भिन्न कार्यों के लिए तीन नाम दे दिए गए हैं- ब्रह्मा , विष्णु व महेश। विष्णु सतमूर्ति हैं , ब्रह्मा रजोगुणीमूर्ति व शिव तामसमूर्ति हैं। एक-दूसरे से स्नेह के कारण एक-दूसरे का ध्यान करने से शिव गोरे हो गए और विष्णु का रंग काला हो गया। शिव तामसी गुणों के अधिष्ठाता हैं। तामसी गुण यानी निंदा , क्रोध , मृत्यु , अंधकार आदि। तापसी भोजन यानी कड़वा , विषैला आदि। जिस अपवित्रता से , जिस दोष के कारण किसी वस्तु से घृणा की जाती है , शिव उसकी ओर बिना ध्यान दिए उसे धारण कर उसे भी शुभ बना देते हैं। समुद्र मंथन के समय निकले विष को धारण कर वे नीलकंठ कहलाए। मंथन से निकले अन्य रत्नों की ओर उन्होंने देखा तक नहीं। जिससे जीव की मृत्यु होती है , वे उसे भी जय कर लेते हैं। तभी तो उनका नाम मृत्य़ु़ंजय है। क्रोध उनमें है , पर वे केवल जगत कल्याण के लिए उसका प्रयोग करते हैं , जैसे कामदेव का संहार। उन्हें घोर तपस्या या सुदीर्घ भक्ति नहीं चाहिए। थोड़ी सी भक्ति से ही वे प्रसन्न हो जाते हैं। वे शव की राख अपने ऊपर लगाते हैं और श्मशान में निवास करते हैं। वे जीव को जीवन की अनित्यता की शिक्षा देते हैं। उनके जीवन में वैराग्य है , त्याग है। इसी कारण उनकी पूजा में ऐश्वर्य की वस्तुओं का प्रयोग नहीं होता। हर उस चीज से उनकी पूजा होती है , जिन्हें आमतौर पर कोई पसंद नहीं करता। शिव के उपासक को शिव की ही तरह वैरागी होना चाहिए। वे अपनी ही बरात में बैल पर चढ़कर , बाघंबर ओढ़ कर चल दिए , क्योंकि उन्हें किसी तरह के भौतिक ऐश्वर्य से मोह नहीं है। वे आशुतोष हैं , जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं , भोलेनाथ हैं। पर इसका यह मतलब नहीं कि वे बुद्धि का प्रयोग नहीं करते। 

बुद्धि की उत्पत्ति का स्थान भगवान शिव ही हैं। शिव दरिद्र की तरह रहते हैं , क्योंकि वे सूचित करते हैं कि वैराग्य सुख से बढ़कर कोई सुख नहीं। सत्व , रज और तम , तीनों गुणों की महत्ता आवश्यक है। उत्पत्ति के बाद जीव अपने और दूसरों के पालन-पोषण के लिए काम करता हुआ इतना थक जाता है कि सब कुछ छोड़कर निंदा यानी तम में लीन होना चाहता है। व्याकुल व्यक्ति को विश्राम की आवश्यकता होती है , ऐसे ही पाप बढ़ जाने पर ईश्वर विश्राम देने के लिए विश्व का संहार करते हैं। तम ही मृत्यु है , तम ही काल है , इसीलिए वे महामृत्युंजय हैं , महाकालेश्वर हैं। वे विष और शेषनाग को गले में धारण कर लेते हैं। पर नाश केवल शरीर का होता है। जीवात्मा तो परमात्मा में मिल जाती है। जीवात्मा को मुक्त करती श्रीगंगा भी उन्होंने अपनी जटा में धारण कर ली है। वे संहार करते हैं , तो मुक्ति भी देते हैं। बिना विश्राम के , बिना संहार के न उत्पत्ति हो सकती है और न ही पालन की क्रिया।

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